Monday, July 30, 2012

दिशा भटकता आन्दोलन

जन लोकपाल लाने के लिए अन्ना जी का आन्दोलन सरकार के खिलाफ फिर से जारी है लेकिन कही न कही कुछ कमी सी है 
पिछले दिनों इस आन्दोलन के बारे में बहुत कुछ नकारात्मक मीडिया में छाया रहा और यह कहा जाने लगा की यह आन्दोलन फ्लॉप शो साबित हो रहा है जिस का एक कारण यह भी कहा गया की इस आन्दोलन को मीडिया उतनी तवज्जो नहीं दे रहा जितना पिछली बार दिया था जब अन्ना इसी मुद्दे को लेकर अनशन पर बैठे थे 
तब लोगो में जो जोश और उत्साह था वह इस आन्दोलन में दिखाई नहीं दे रहा तब बच्चा बच्चा अन्ना के समर्थन में था लेकिन पिछले कुछ समय में ऐसा क्या हुआ की स्थिति एक दम से बदल गयी हालाकि आन्दोलन के शुरू होने के चार दिन बाद जब अन्ना स्वयं अनशन पर बैठे तब सूना पड़ा आन्दोलन स्थल पे काफी हलचल दिखी लेकिन यह उस भीड़ के आगे कुछ भी नहीं थी जो पिछली बार रामलीला मैदान पर जुटी थी 
काफी लोग इसका दोष मीडिया की सर दे रहे है की मीडिया अन्ना के आन्दोलन की कवरेज केंद्र सरकार के दबाव में नहीं कर रहा जो कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन इसका  तो सीधा सा यह मतलब हुआ की आपका आन्दोलन मीडिया की ताकत के बिना कुछ भी नहीं और पुराना आन्दोलन तो मीडिया द्वारा पानी पर निर्मित एक बुलबुला था जो समय पाकर फूट गया 

इसका अर्थ यह भी हुआ की आपका पुराना आन्दोलन लोगो के दिलो दिमाग पर पूरी तरह से असर कर पाने में नाकाम हुआ अगर ऐसा न हुआ होता तो आज यह स्थिति न हुई होती 

आज दैनिक भास्कर में टोनी जोसेफ द्वारा अभिव्यक्ति के अंतर्गत लिखे लेख की चंद पंक्तियों का जिक्र करना चाहूँगा  "सोचिए किसी दिन आप काम से वापस लौटते हैं और अपने अपार्टमेंट को आग की लपटों से घिरा पाते हैं। आपके आस-पड़ोस वाले आग बुझाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। कोई बाल्टी से पानी उड़ेल रहा है, कोई हॉजपाइप के सहारे आग पर पानी फेंक रहा है तो कोई लोगों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाने में लगा है। ऐसे में आप क्या करेंगे? उनके साथ आग बुझाने की कोशिशों में जुट जाएंगे या फिर हाथ पर हाथ धरे उनके नाकाफी साबित होते प्रयासों पर टीका-टिप्पणी करने लगेंगे? |"

मैं टोनी जी उक्त पंक्तियों से पूर्ण रूप से सहमत हू लेकिन जब यह आन्दोलन अपनी दिशा से ही भटकता हुआ दिख रहा है तो इसे पहले जैसा समर्थन ना मिलना वाजिब है क्या है वह वजह और क्या है वह मुद्दे जिसकी वजह से लोग इस आन्दोलन से पहले जैसा जुड़ाव महसूस नहीं कर रहे 

निश्चय ही अन्ना की कोशिशे काबिले तारीफ है लेकिन अन्ना टीम द्वारा दिए जा रहे अलग अलग ब्यान बाजी से उनके आपसी मतभेद और राजनितिक महत्वाकांक्ष सामने आ रही है 

सब से पहले तो अन्ना यह कहते है की हमारी मांग है की जन लोकपाल बिल पास करो नहीं तो गद्दी छोडो, अगर यह सरकार हट जाती है तो फिर नयी सरकार कौन बनाएगा जाहिर है विपक्षी दलों में से ही सरकार बनेगी और अन्ना जब उन विपक्षी दलों  समर्थन भी नहीं करते तो फिर देश कौन और कैसे चलाएगा और कहते है  की हमारी कोई राजनीतिक मह्ताव्कंषा नहीं है तो फिर भाई देश कौन और कैसे चलाएगा देश चलाने के लिए एक पूर्णकालिक सरकार की आवश्यकता है जो की आप पूरी होने नहीं देना चाहते  और अभी इस आन्दोलन में वह अपनी इस बात से पलटी मार गए और कहते है की हम एक पार्टी बनायेगे जो आने वाले लोकसभा चुनाव में सरकार के सामने खड़े होंगे 

अन्ना ने पिछले आन्दोलन के दौरान कहा की देश में जहा जहा भी चुनाव होंगे वहा हम लोग जायेगे और सरकार द्वारा समर्थित उमीदवारो को  वोट न देने की अपील करेंगे तो इस बात पर भी टीम अन्ना अडिग नहीं रही सिर्फ हरयाणा में हुए विधान सभा उपचुनाव को छोड़ दे तो उन्होंने अपना यह वादा भी नहीं निभाया 
 पिछला आन्दोलन जब शुरू हुआ था तो बाबा रामदेव और अन्ना ने एक साथ मंच साँझा किया था लेकिन दोनों में वैचारिक मतभेद होने से और अलग अलग आन्दोलन चलाने से भी इस आन्दोलन को नुक्सान ही हुआ है 

क्या सिर्फ जन लोकपाल तक ही है अन्ना का अनोद्लन ? देश के सामने और भी कई जवलंत मुद्दे है जिनका अन्ना जिक्र तक नहीं करते ? क्यों नहीं अन्ना आरक्षण के खिलाफ कुछ बोलते जिसने हमारे देश को जड़ तक खोखला किया हुआ ? आरक्षण के खिलाफ न बोलना एक प्रकार से आरक्षण का समर्थन करने जैसा ही है और सब जानते है देश में फैले हुए भ्रष्टाचार की एक महत्वपूर्ण वजह आरक्षण भी है लेकिन इस विषय में ना तो अन्ना तो न ही रामदेव कुछ बोलने को तैयार है बस दोनों अपनी डफली अपना राग गा रहे है 

सरकार भी इसे देख रही है और समझ रही है की आन्दोलन में श्रेय लेने की होड में फूट पड़ गयी है और अब यह पहले जैसा जन समर्थन इसी वजह से नहीं पा रहा है

कल अन्ना के समर्थकों ने प्रधानमंत्री के घर के सामने प्रदर्शन किया और अंदर पत्थर और कोयले भी फेके जो की पूर्णता गलत है एक तरफ तो अन्ना गाँधीवादी होने का दंभ भरते है और दूसरी तरफ हिंसक तरीके से उनके  समर्थक प्रदर्शन करते है

उपरोक्त बातों के कारण ही आन्दोलन अपनी दिशा से भटकता हुआ नजर आ रहा है और आम जनता इसमें पहले जैसा जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रही है 

अगर अन्ना को लगता है की जन समर्थन उनके पक्ष में है तो उन्हें आने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी बना कर जरुर सरकार के समक्ष खड़ा होना चाहिए और अपनी मनमर्जी की सरकार बना कर अपने आन्दोलन के उद्देश्य को पूरा करना चाहिए 

Friday, July 20, 2012

वक्त कितना बीत गया पर बदला कितना कम


वक्त कितना बीत गया पर बदला कितना कम 
राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में एक बड़ा रोचक किस्सा प्रचलित है। बात उस समय की है जब कुछ स्कूल ऐसे होते थे, जहां सिर्फ राजा-महाराजाओं के बच्चे ही पढ़ सकतेे थे। एक राजा साहब ऐसे थे जिनके बेटे के साथ एक गरीब के बेटे को भी स्कूल भेजा जाता था। इस बात की क्षेत्र में बड़ी चर्चा थी। गरीब इस बात पर बल्ले-बल्ले कि उसका बेटा राजा के बेटे के साथ पढऩे जाता है। कुछ दिन बाद लोगों को पता चला कि गरीब का बेटा राजा के बेटे के साथ स्कूल तो जाता है, पर क्लास में नहीं बैठता। बाहर बैठा रहता है। अब लोगों की उत्सुकता और बढ़ गई। सब सोचते यह क्या चक्कर है। कुछ लोगों का मन नहीं माना। किसी तरह से मास्टरजी तक पहुंच बनाई गई। पूछा। मास्टरजी ने कहा - हां, वह आता तो है। राजाजी ने यह कहलवाकर उसे भिजवाया था कि राजकुमार रानीजी के बहुत दुलारे हैं। आप ठहरे मास्टर, राजकुमार ठहरे बच्चे। हो सकता है राजकुमार कुछ गलती कर बैठें या कोई सबक ठीक से न सीख सकें। आपको गुस्सा आ सकता है। तो आप अपना गुस्सा इस गरीब बच्चे पर उतार लें। डांट लें, डंडा मार लें, चपत लगा लें। जब पूरा गुस्सा उतर जाए तो राजकुमार को प्यार से फिर सबक पढ़ा दें।

राजे-रजवाड़े नहीं रहे। किस्सा पुराना पड़ गया है, लेकिन किस्से की जो मूल सोच है, वह आज भी कहीं मौजूद है। कई बार खुले तौर पर देखने को भी मिलती है। राजनीति में ही देख लीजिए। कांग्रेस में कौआ भी कहीं गलती से कमाल दिखा दे तो क्रेडिट युवराज राहुल को ही जाता है। दलित के घर वे खाना खा लें तो जय-जयकार। पीडि़त की पीड़ा सुन भर लें तो वाह-वाह। मीडिया के सवाल का सही-सटीक जवाब दे दें तो विजन, इनोवेटिव सोच सब नजर आ जाए। लेकिन जब पूरी ताकत झोंकने के बाद भी उत्तरप्रदेश में राहुल का करिश्मा नहीं चल पाता तो पार्टी मौन धारण कर लेती है। हर कोई वह माथा तलाशने में जुट जाता है, जिस पर हार का ठीकरा फोड़ा जा सके। कभी-कभी सलमान खुर्शीद जैसे नेता भूल से सच बोल जाते हैं, मगर हल्ला इतना मचता है कि उन्हें भी जबान पीछे खींच लेनी पड़ती है। याद कीजिए, खुर्शीद ने सिर्फ इतना ही तो कहा था कि छोटी-छोटी उपलब्धियों से बात नहीं बनेगी, राहुल को बड़े फलक पर काम करना होगा। राजकुमार के बारे में यह राय भी कबूल नहीं है पार्टी को।

समाज में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। समर्थ को सब माफ, बाकी को सब पाप। अभी पिछले दिनों की बात है। कोर्ट ने कहा - शहर में गुंडागर्दी बहुत बढ़ गई है, पुलिस कुछ कर नहीं रही। पुलिस को गुस्सा आया। गुंडे तो पकड़ में आए नहीं, तो वह ऑफिस जाने-आने वाले उन दोपहिया वाहन चालकों के चालान बनाने में जुट गई, जिनके वाहन में मड गार्ड नहीं हैं या जिनके साइलेंसर से अधिक धुआं निकल रहा है। पिछली दफा जब कोर्ट नाराज हुआ था खराब रोड और बिगड़े ट्रैफिक पर, तो प्रशासन ने हेलमेट अनिवार्य करने का बीड़ा उठा लिया था। है ना गजब?

एक और दृश्य देखिए - शहर में एक शॉपिंग मॉल के सामने कुछ अफसरों की गाडिय़ां नियमों को धता बताते हुए सड़क पर खड़ी थीं। गाडिय़ां तो अमूमन रोज ही खड़ी रहती हैं, पर उस दिन हल्ला इसलिए मच गया कि यह सब अखबार की सुर्खियों में आ गया था। सवाल उठने लगे। नियमों का पालन कराने वाले ही नियमों को कैसे तोड़ रहे हैं? ऊपर वालों ने नीचे वालों को डांटा, नीचे वाले और नीचे वालों पर भड़के। अंतत: जिन अफसरों की गाडिय़ां वहां खड़ी पाई गई थीं, उन्होंने अपने-अपने ड्राइवर को नोटिस थमा दिए - बताओ गाड़ी गलत पार्किंग में क्यों खड़ी की थी? गोयाकि साहब को तो कुछ पता ही नहीं। अब आप ही बताइए, क्या इन ड्राइवरों में आपको क्लास के बाहर बैठे उस गरीब बच्चे की सूरत नजर नहीं आती। बेशक वक्त काफी बीत गया है, पर शायद उतना बदला नहीं

भास्कर ब्लॉग में अनिल कर्मा जी द्वारा लिखे गए ब्लॉग के सोजन्य से